Religious Desk – कामदा एकादशी (Kamda Ekadshi) के दिन भगवान विष्णु की पूजा का विधान है। इस एकादशी का व्रत रखने से व्यक्ति के सभी पापों का नाश हो जाता है। जिसको विधिपूर्वक करने से राक्षस आदि की योनि भी छूट जाती है। कहते हैं कि संसार में इसके बराबर कोई और दूसरा व्रत नहीं है. इसकी कथा पढ़ने या सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
कामदा एकादशी कब है – हिन्दू पंचांग के अनुसार चैत्र महीने की शुक्ल पक्ष एकादशी को कामदा एकादशी मनाई जाती है। यह एकादशी चैत्र नवरात्र और रामनवमी के बाद आती है। इस बार कामदा एकादशी 4 अप्रैल 2020 को है।
कामदा एकादशी की तिथि और शुभ मुहूर्त –
कामदा एकादशी की तिथि: 4 अप्रैल 2020
एकादशी तिथि प्रारंभ: 4 अप्रैल 2020 को सुबह 12 बजकर 58 मिनट से
एकादशी तिथि समाप्त: 4 अप्रैल 2020 को रात 10 बजकर 30 मिनट तक
कामदा एकादशी का व्रत रखने वाले को अगले दिन सूर्योदय के बाद पारण कर लेना चाहिए। द्वादशी तिथि के समापन से पूर्व पारण करना आवश्यक है अन्यथा वह पाप का भागी होता है। एकादशी व्रत रखने वाले को 05 अप्रैल दिन रविवार को सुबह 06 बजकर 06 मिनट से 08 बजकर 37 मिनट के मध्य पारण करना है। व्रती के पास पारण के लिए कुल 02 घंटे 31 मिनट का समय है।
कामदा एकादशी का महत्व –
हिन्दू धर्म में कामदा एकादशी का विशेष महत्व है. कहते हैं कि इस व्रत को करने से राक्षस योनि से तो छुटकारा मिलता ही है साथ ही व्यक्ति को सभी संकटों और पापों से मुक्ति मिल जाती है। कामदा एकादशी का व्रत करने से व्यक्ति के समस्त पापों का नाश होता है और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। सुहागिन महिलाएं अगर इस एकादशी का व्रत रखें तो उन्हें अखंड सौभाग्य का वरदान मिलता है। कुंवारी कन्याओं की विवाह में आ रही बाधा दूर होती है
कामदा एकादशी की पूजा विधि –
एकादशी के दिन प्रात:काल में स्नान आदि से निवृत्त होकर साफ सुथरे वस्त्र पहन लें। फिर दाहिने हाथ में जल लेकर कामदा एकादशी व्रत का संकल्प लें। इसके पश्चात पूजा स्थान पर आसन ग्रहण करें और एक चौकी पर भगवान विष्णु की प्रतिमा या तस्वीर को स्थापित करें। फिर चंदन, अक्षत्, फूल, धूप, गंध, दूध, फल, तिल, पंचामृत आदि से विधिपूर्वक भगवान विष्णु की पूजा करें। अब कामदा एकादशी व्रत की कथा सुनें। पूजा समापन के समय भगवान विष्णु की आरती करें। बाद में प्रसाद लोगों में वितरित कर दें।
– कामदा एकादशी के दिन भगवान विष्णु की पूजा का विधान है.
– इस दिन तड़के सुबह उठकर पवित्र नदियों या किसी तीर्थ स्थान में स्नान करना अच्छा माना जाता है.
– अगर ऐसा करना संभव न हो तो घर पर ही नहाने के पानी में गंगा जल छिड़क कर स्नान करना भी शुभ होता है.
– नहाने के बाद घर के मंदिर में श्री हरि विष्णु की प्रतिमा, फोटो या कैलेंडर के आगे दीपक जलाएं और व्रत का संकल्प लें.
– अब भगवान विष्णु का फल, फूल, दूध, पंचामृत और तिल से पूजन करें.
– श्री हरि विष्णु जी की पूजा में तुलसी दल अवश्य रखें.
– तत्पश्चात सत्य नारायण की कथा पढ़ें.
– अब भगवान विष्णु की आरती उतार उन्हें भोग लगाएं.
– कामदा एकादशी का व्रत रखने वाले भक्त को इस दिन अनाज ग्रहण नहीं करना चाहिए.
– अगले दिन यानी कि द्वादश को ब्राह्मण को भोजन कराने के बाद व्रत का पारण करना चाहिए.
स्वयं दिनभर फलाहार करते हुए भगवान श्रीहरि का स्मरण करें। शाम के समय भजन कीर्तन करें तथा रात्रि जागरण करें। अगले दिन द्वादशी को स्नान आदि के बाद भगवान विष्णु की पूजा करें। किसी ब्राह्मण को दान-दक्षिणा दें। इसके पश्चात पारण के समय में पारण कर व्रत को पूरा करें।
कामदा एकादशी व्रत कथा –
श्रीकृष्ण के प्रिय सखा अर्जुन ने कहा- “हे कमलनयन! मैं आपको कोटि-कोटि नमन करता हूँ। हे जगदीश्वर! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप कृपा कर चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी कथा का भी वर्णन सुनाइये। इस एकादशी का क्या नाम है? इस व्रत को पहले किसने किया और इसके करने से किस फल की प्राप्ति होती है?”
श्रीकृष्ण ने कहा- “हे अर्जुन! एक बार यही प्रश्न राजा दिलीप ने गुरु वशिष्ठ से किया था, वह वृत्तान्त मैं तुम्हें सुनाता हूँ। राजा दिलीप ने गुरु वशिष्ठ से पूँछा- ‘हे गुरुदेव! चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या नाम है? उसमें किस देवता का पूजन होता है तथा उसका क्या विधान है? वह आप कृपापूर्वक बताइये।’
मुनि वशिष्ठ ने कहा- ‘हे राजन! चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम कामदा एकादशी है। यह समस्त पापों को नष्ट करने वाली है। जैसे अग्नि काष्ठ को जलाकर राख कर देती है, वैसे ही कामदा एकादशी के पुण्य के प्रभाव से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति होती है। इसके उपवास से मनुष्य निकृष्ट योनि से मुक्त हो जाता है और अन्ततः उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। अब मैं इस एकादशी का माहात्म्य सुनाता हूँ, ध्यानपूर्वक श्रवण करो- प्राचीन समय में भागीपुर नामक एक नगर था। जिस पर पुण्डरीक नाम का राजा राज्य करता था। राजा पुण्डरीक अनेक ऐश्वर्यों से युक्त था। उसके राज्य में अनेक अप्सराएँ, गन्धर्व, किन्नर आदि वास करते थे। उसी नगर में ललित और ललिता नाम के गायन विद्या में पारन्गत गन्धर्व स्त्री-पुरुष अति सम्पन्न घर में निवास करते हुए विहार किया करते थे। उन दोनों में इतना प्रेम था कि वे अलग हो जाने की कल्पना मात्र से ही व्यथित हो उठते थे। एक बार राजा पुण्डरीक गन्धर्वों सहित सभा में विराजमान थे। वहाँ गन्धर्वों के साथ ललित भी गायन कर रहा था। उस समय उसकी प्रियतमा ललिता वहाँ उपस्थित नहीं थी। गायन करते-करते अचानक उसे उसका ख्याल आ गया, जिसके कारण वह अशुद्ध गायन करने लगा। नागराज कर्कोटक ने राजा पुण्डरीक से उसकी शिकायत की। इस पर राजा को भयंकर क्रोध आया और उन्होंने क्रोधवश ललित को शाप (श्राप) दे दिया- ‘अरे नीच! तू मेरे सम्मुख गायन करते हुए भी अपनी स्त्री का स्मरण कर रहा है, इससे तू नरभक्षी दैत्य बनकर अपने कर्म का फल भोग।’
ललित गन्धर्व उसी समय राजा पुण्डरीक के शाप (श्राप) से एक भयंकर दैत्य में बदल गया। उसका मुख विकराल हो गया। उसके नेत्र सूर्य, चन्द्र के समान प्रदीप्त होने लगे। मुँह से आग की भयंकर ज्वालाएँ निकलने लगीं, उसकी नाक पर्वत की कन्दरा के समान विशाल हो गई और गर्दन पहाड़ के समान दिखायी देने लगी। उसकी भुजाएँ दो-दो योजन लम्बी हो गईं। इस प्रकार उसका शरीर आठ योजन का हो गया। इस तरह राक्षस बन जाने पर वह अनेक दुःख भोगने लगा। अपने प्रियतम ललित का ऐसा हाल होने पर ललिता अथाह दुःख से व्यथित हो उठी। वह अपने पति के उद्धार के लिए विचार करने लगी कि मैं कहाँ जाऊँ और क्या करूँ? किस जतन से अपने पति को इस नरक तुल्य कष्ट से मुक्त कराऊँ?
राक्षस बना ललित घोर वनों में रहते हुए अनेक प्रकार के पाप करने लगा। उसकी स्त्री ललिता भी उसके पीछे-पीछे जाती और उसकी हालत देखकर विलाप करने लगती।
एक बार वह अपने पति के पीछे-पीछे चलते हुए विन्ध्याचल पर्वत पर पहुँच गई। उस स्थान पर उसने श्रृंगी मुनि का आश्रम देखा। वह शीघ्रता से उस आश्रम में गई और मुनि के सामने पहुँचकर दण्डवत् प्रणाम कर विनीत भाव से प्रार्थना करने लगी- ‘हे महर्षि! मैं वीरधन्वा नामक गन्धर्व की पुत्री ललिता हूँ, मेरा पति राजा पुण्डरीक के शाप (श्राप) से एक भयंकर दैत्य बन गया है। उससे मुझे अपार दुःख हो रहा है। अपने पति के कष्ट के कारण मैं बहुत दुखी हूँ। हे मुनिश्रेष्ठ! कृपा करके आप उसे राक्षस योनि से मुक्ति का कोई उत्तम उपाय बताएँ।’
समस्त वृत्तान्त सुनकर मुनि श्रृंगी ने कहा- ‘हे पुत्री! चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम कामदा एकादशी है। उसके व्रत करने से प्राणी के सभी मनोरथ शीघ्र ही पूर्ण हो जाते हैं।
यदि तू उसके व्रत के पुण्य को अपने पति को देगी तो वह सहज ही राक्षस योनि से मुक्त हो जाएगा और राजा का शाप (श्राप) शान्त हो जाएगा।’
ऋषि के कहे अनुसार ललिता ने श्रद्धापूर्वक व्रत किया और द्वादशी के दिन ब्राह्मणों के समक्ष अपने व्रत का फल अपने पति को दे दिया और ईश्वर से प्रार्थना करने लगी- ‘हे प्रभु! मैंने जो यह उपवास किया है, उसका फल मेरे पतिदेव को मिले, जिससे उनकी राक्षस योनि से शीघ्र ही मुक्ति हो।’
एकादशी का फल देते ही उसका पति राक्षस योनि से मुक्त हो गया और अपने दिव्य स्वरूप को प्राप्त हुआ। वह अनेक सुन्दर वस्त्रों तथा आभूषणों से अलंकृत होकर पहले की भाँति ललिता के साथ विहार करने लगा।
कामदा एकादशी के प्रभाव से वह पहले की भाँति सुन्दर हो गया और मृत्यु के बाद दोनों पुष्पक विमान पर बैठकर विष्णुलोक को चले गये।
हे अर्जुन! इस उपवास को विधानपूर्वक करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। इस व्रत के पुण्य से मनुष्य ब्रह्महत्यादि के पाप और राक्षस आदि योनि से मुक्त हो जाते हैं। संसार में इससे उत्तम दूसरा कोई व्रत नहीं है। इसकी कथा व माहात्म्य के श्रवण व पठन से अनन्त फलों की प्राप्ति होती है।
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